कबिरा जब हम पैदा हुए, सभी हँसे हम रोये / अब ऐसी करने कर चलें, हम हँसे सब रोये
कबिरा जब हम पैदा हुए, सभी हँसे हम रोये , अब ऐसी करने कर चलें, हम हँसे सब रोये

 


"कबिरा जब हम पैदा हुए, सभी हँसे हम रोये /
अब ऐसी करने कर चलें, हम हँसे सब रोये //"
जीवन में बचाने जैसा क्या है ?
जब यह प्रश्न एक युवक ने रमण महर्षि से किया तो महर्षि ने ध्यान से उस युवक की और देखकर बोला "स्वयं की आत्मा और उसका संगीत अर्थात उससे आने वाली आवाज।"जो इसे बचा लेता है वह सब कुछ बचा लेता है और जो इसे खो देता है, वह सब कुछ खो देता है।
जीवन का यथार्थ मूल्यांकन वही कर सकते हैं, जो उसकी गरिमा से परिचित हों। जैसे पशु-पक्षियों की दृष्टि में बहुमूल्य पदार्थों की कीमत कुछ नहीं होती, उसी प्रकार से निरुद्देश्य भटकने, प्रजनन जैसे प्रयोजनों में जीवन गँवा देने, मरने और मारने पर उतारू रहने वाले व्यक्ति जीवन का मूल्य कहाँ समझते हैं ? नासमझ को चन्दन हाँथ लग जाय तो वह उसे भी जला के कोयला बना डालेगा। आत्मगरिमा से अपरिचित होने से हम यही कुछ तो कर रहे हैं।
मैं यहांँ उनकी बात नहीं करता जिनकी आत्मा मर चुकी है। वैसे तो आत्मा, अजर अमर है, किन्तु जब इससे आवाज आना ही बंद हो जाये या अपनी आत्मा से आती हुयी आवाज हम स्वयं ही न सुने तो इसे मरा हुआ नहीं तो और क्या कहेंगे ? हाँ कभी प्रश्न उठ सकता है, कि यह आवाज कैसे पहिचानी जाय अर्थात कैसे माने की जो मन में विचार आ रहा है, वह आत्मा की ही आवाज है? तो सबसे सरल उपाय हैं कि "आत्म प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत" अर्थात जो व्यवहार अपने को रुचिकर न हो उसे दूसरों के साथ न करें। और यदि ऐसा हम कर रहे हैं, तो निश्चय ही हमारी आत्मा पर चुकी है और यह आत्महत्या का अपराध पाप है, जिसका दंड यहांँ तो नहीं पर वहां जरूर मिलेगा।
तो आईये अपने-अपनी आत्मा की आवाज को सुनें, सुनकर उसके अनुसार चलें और यदि किसी कारण से आत्मा मर चुकी हो तो उसे पुनर्जीवित करें। परमात्मा करे कि हम निरर्थक भटकाओं से बचकर सामर्थ्य को सुनियोजित कर मानव जीवन सार्थक कर सकें।
वैसे तो प्रत्येक दिवस ही क्यों प्रत्येक क्षण हम सबको परमात्मा द्वारा दिया गया अमूल्य वरदान है, जिसका सदुपयोग कर हम नर से नारायण की यात्रा कर सकते हैं, किन्तु पतन मार्ग की सुगमता, संकल्प की दुर्बलता और घोर अज्ञानता ऐसा कुछ होने नहीं देती। हम ऐसे ही दिन, माह, वर्ष और पूरा जीवन ही काटते चले जाते हैं।
अगर सोचें तो वास्तव में हमारे यह "जीवन दिन काटने के लिए नहीं, कुछ महान कार्य करने के लिए है।" हम प्रतिदिन कुछ न कुछ महान कार्य तो कर ही सकते हैं। यदि महान कार्य न कर सकें तो कम से कम मानवता के लिए कलंक स्वरूप तुच्छ कार्यों से दूर तो रह ही सकते हैं। हमारे अलावा किसमें यह ताकत है कि हमें निम्न कार्य करने के लिए मजबूर करे। हाँ हमारी प्रकृति जरूर हमसे अपने अनुरूप कार्य कराती हैं, पर वह होती भी तो है हमारे दीर्घकालीन सोच का परिणाम ही। हाँ निष्क्रियता और भी खतरनाक है। भगवान् कहते हैं -
"नहीं एक क्षण रुक सके, नर बिन कर्म किशोर।


बस होकर निज प्रगति के, कर्म करे बरजोर ।।"
आप सभी की शुभकामनाओं के लिये आभार। सादर हरि स्मरण।  

 

पण्डित जुगुल किशोर तिवारी आईपीएस ( उत्तर प्रदेश )